Saturday 8 April 2023

तबियत बदल जाए

 चाहत नहीं हमेशा मुलाकात की,
आँखें बंद कर भी, दीदार हो जाए।

ये फासले हैं कि साँसो की खलल,
सीने का ये खंजर, आर पार हो जाए।

एक दफा ये तूफान आए उधक भी,
शहर के शहर तमाम हो जाए।

काश आए ऐसा भी एक दिन,
वो गुजरे, और तूफान आ जाए।

कयामत है उसकी हर नजर में,
अगर देख ले, तो तबियत बदल जाए।

                                     २२/०८/२०१४

बादल, बारिश और बचपन

 हवाओं में कुछ नमी सी है,
कभी कभी काले बादलों के साथ
कुछ चंचल बूंदें भी बरस पड़ती है।
लगता है, कि बारिश का मौसम
अब आ गया है।

ये बूंदें बरसती रहती हैं,
और मुझे नींद नहीं आती।
कौन कहता है कि 
बचपन वापस नहीं आता?
मैं जब भी बूंदों की छम छम सुनता हूं,
मेरा बचपन वापस आ जाता है।

ठीक उन दिनों की तरह, आज भी,
ये बारिश छत से गिरकर
सीढ़ियों पर शोर मचाती है।
और, हवा के झोंको के साथ, 
ये हल्की फुहारें,
चेहरे को छूती हैं।
कुदरत के ये कोमलतम कांटे है,
जिनका स्पर्श, नींद उड़ा देता है।

खिड़कियां बंद कर लूं, तो कुछ बूंदें,
इसकी काँच से टकराकर दम तोड़ती हैं।
और जाते जाते,
टेढ़ी मेढ़ी लकीरों से, कुछ
संदेशे लिख जाति हैं।

बिल्कुल थक हारकर ये बारिश
जमा होती है, 
उसी घास के मैदान पर।
एक छिछला तालाब बन जाने पर,
इसी घास पर बचपन में खेलता था।

बारिश कब रुके, कौन जाने!
माँ से बचकर आज भी
इसी घास पर खेल लेता हूं,

कौन कहता है कि बचपन वापस नहीं आता?
हर एक बारिश में माँ आगाह करती है,
हर एक बारिश में में खेलता हूं।
और, हर एक बारिश में मेरा बचपन वापस आता है!

                                        २२/०६/२०१४

एक नई दुनियाँ

 खुद से देखी है तुमने जो दुनियाँ,
आज उनके रंग मैं दिखाता हूं।
बादलों के नीचे नहीं, जरा ऊपर आओ,
एक नई बारिश दिखाता हूं।

पहली बारिश से मिट्टी की सौंध,
ऐसी कस्तूरी में खो जाता हूं।
कुछ नई लताएं हैं इस जीवन की,
साथ चलो, उनपर झूलना चाहता हूं।

पगडंडियों पर डगमगाते हैं खयाल मेरे,
कि अब जेहन से न समझौता चाहता हूं।
पिघले नीलम सा ये आकाश,
इनके राज सुन लेना चाहता हूं।

उभरते गम, दबी मुस्कान, खुस्क रुखसार,
इनकी कीमत चुकाना चाहता हूं।
मेरी शगल नही बेचैन करना,
फिर भी एक चैन की उम्मीद चाहता हूं।

मुट्ठियाँ खोल आजाद करो सिमटे वक्त,
कि अब तो तलब है नए पलों की।
बीते खराशों की इल्म न थी, माना,
पर अब खुशियों की झुरमुट सौंपता हूं।

                                                १०/०२/२०१३

Wednesday 6 November 2013

नयापन

खुली आँखों के कुछ सपने 
आँखें बंद कर देखता था। 
अब बंद आँखों के सपने 
भी,आँखें खोल देखता हूँ। 

खासी बदली है मेरी ज़िन्दगी 
कुछ नए लोग अब साथ हैं। 
याद करते हैं अब सभी पुराने 
एक नया अपनापन देखता हूँ। 

बरसों पहले बिछड़ा था जो 
आज वो साथ हो गया है। 
कुसूर मेरा था,और इसलिए 
शिकवे अपनी खुद देखता हूँ। 

आज के मेरे सभी सपने 
देखता हूँ उसी के साथ। 
चाहे जहाँ ले जाये ये ज़िन्दगी 
हाथों में उसका हाथ देखता हूँ। 

कुछ अच्छे पल बीतें संग 
बदस्तूर,हम साथ जियें। 
मीलों दूर कि तन्हाई में भी 
उसकी आँखों कि चमक देखता हूँ।  



                         ११/०५/२०१३ 

Thursday 31 October 2013

एक चिट्ठी

आया है एक लिफाफा मेरे नाम 
भेजी है ये ज़िन्दगी इसे,
मेरे पते पे !

काफी शख्ती से ये बंद है,
बिलकुल ही सुरक्षित। 
कोई संदेशा होगा !
कुछ हुक्म, और शायद 
बची-खुची कुछ साँसें होंगी। 
 मेरे नाम हैं ये सभी,
आया है ये, मेरे ही पते पे !

काफी शिद्दत से मैंने खोला 
इस बंद लिफाफे को। 
हाँ, एक बहुत लम्बी चिट्ठी है, 
कई पन्ने हैं इसके। 
कुछ पन्ने अतीत के हैं,
जो पीले पड़ गए हैं। 
कुछ भविष्य के हैं,
पर ये बिलकुल सफ़ेद हैं,
कुछ नहीं लिखा है इसपर। 
मुझे ही हुक्म है, इसमें लिखने को !
वर्तमान का कोई पन्ना नहीं है,
ये तो मुसल्सल
साक्षात् अनुभव है। 

और कई पन्ने हैं 
मेरी ज़िन्दगी के 
अलग-अलग रंगों के !
कुछ पन्ने हैं किस्मत के। 
डर है कि कहीं इनमें 
दीमक न लगी हो !
किसी में छेद न हो !
कहीं मेरी किस्मत,
बरसात में तालाब पर 
टपकती बूंदों से बने 
छोटे-छोटे भँवर न हो !
जो एक साथ तो काफी 
ख़ूबसूरत लगते हैं,
पर इनमें से किसी बूँद 
का कोई वजूद नहीं होता !
डर है कि इस पन्ने को 
मेरे ही सामने कहीं 
फाड़ न दिया जाए !
और मैं, तजुर्ब-ए-ज़िन्दगी 
की बैसाखी संग 
समझौता  जाऊँ,
समझौता  जाऊँ !

आया है यही लिफाफा मेरे नाम 
भेजी है ये ज़िन्दगी इसे 
मेरे ही पते पे !




                                                               २०/०८/२०१३ 

हम-तुम

कहीं किसी कोने में 
मायूस है एक दिल,
सूखी पलकों कि ये नमी 
कौन, किसे, कैसे समझाए !

पर इसकी खबर है मुझको 
कि चाहिए कुछ वक़्त उसको,
मैं तो समझता हूँ सबकुछ
कम्बख्त, दिल किसे समझाए !


कुछ बीती बातें थीं दिल में 
सूर्ख जिसकी खराशें हैं,
वक़्त का ये खालीपन 
वक़्त को ही कैसे समझाए !

काट कर मैं अपने लम्हें  
जोड़ दूँ उसके पलों में,
वो भी समझता है मुझे, पर 
वो दुनियाँ में किसे समझाए !

आओ, मिलकर जियें ये पल 
कुछ ग़मों को हम साथ पीयें,
भूलो इस दुनियाँ को अब
न तुम समझो, ना हम समझाएँ ! 




१०/०८/२०१३ 

बचपन

बचपन की वो महक
शायद कहीं खो गयी,
इतनी भीड़ थी यहाँ 
कि किस्मत बदल गयी। 

कुछ हलचल थी उस वक़्त 
जो अब शांत हो गयी,
ऐसा भगाया वक़्त ने 
कि, साँसें पीछे छूट गयी। 

मायूस पलकों कि नमी
पलों में सूख गयी,
वो पुरानी मटमैली यादें 
कुछ धूमिल हो गयी। 

देखा कुछ बच्चों को आज 
मुझे तो तू झलक गयी,
काश ! उनमें मैं भी होता -
ये ख्वाहिश ही रह गयी !




०९/०८/२०१३